Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


131. जयराज और दौत्य : वैशाली की नगरवधू

वज्जीगण प्रतिनिधि का भव्य स्वागत करने में मागध सम्राट ने कुछ भी उठा न रखा। प्रशस्त सभामण्डल यत्न से सुसज्जित किया गया । सम्राट् गंगा - जमुनी के सिंहासन पर विराजमान हुए। मस्तक पर रत्नजटित जाज्वल्यमान स्वर्ण-मुकुट धारण किया । पाश्र्व में देश - देश के विविध करद राजा, सामन्त और राजपरिजनों की बैठकें बनाई गईं । सम्राट् के ऊपर श्वेत रजतछत्र लग रहा था , जिस पर बहुत बड़े मोतियों की झालर टंगी थी । सिंहासन के सम्मुख राज अमात्य , पुरोहित और धर्माध्यक्ष का आसन था । पीछे महासेनापति आर्य भद्रिक और उदायि अपने संपूर्ण सेनाधिपतियों सहित यथास्थान अवस्थित थे। एक ओर गायक और नर्तकियां , मंगलामुखी वारवनिताएं संगीतसुधा बिखेरने को सन्नद्ध खड़ी थीं । राजा के पीछे चांदी की डांड का छत्र लिए एक खवास खड़ा था । दायें - बायें दो यवनी दासियां चंवर झल रही थीं । दक्षिण पाश्र्व में मुर्छलवाला था । उसके पीछे अन्यान्य दण्डधर, कंचुकी , द्वारपाल आदि यथास्थान नियम से खड़े थे । सम्राट् का तेजपूर्ण मुख उस समय मध्याह्न के सूर्य की भांति देदीप्यमान हो रहा था । बारह लाख मगध -निवासियों के निगम -जेट्ठक और अस्सी सहस्र गांवों के मुखिया भी इस दरबार में आमन्त्रित किए गए थे।

लिच्छवि राजप्रतिनिधि ने अपने अनुरूप भव्य वेश धारण किया था । उनका बहुमूल्य स्वर्ण-तारजटित कौर्जव और उत्तम काशिक कौशेय का उत्तरीय अपूर्व था । उनके साथ बहुमूल्य उपानय था , जिनमें बीस सैंधव अश्व , पांच भीमकाय हाथी , बहुत - से रत्नखचित शस्त्रास्त्र तथा स्वर्ण- तारग्रथित काशी वस्त्र थे ।

जयराज ने सभास्थल में प्रविष्ट होकर देखा - सम्राट् पूर्व दिशा में उदित सूर्य की भांति अचल भाव से अपने मंत्रियों और सभ्यों के बीच स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हैं । सभास्थल में बिछे हुए रत्न - कम्बलों की आभा बहुरंगी मेघों के समान भाषित हो रही थी । कौशेय और ऊनी रोएं , जो सुनहरी तार- पट्टी के गुंथे थे, ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे सूर्य रश्मियां शत - सहस्र आभा धारण करके भूमि पर अवतरित हुई हैं ।

जयराज ने सम्राट् के सम्मुख जा राज - निष्ठा के नियमानुसार उनका अभिवादन कर वज्जीगणपति का राजपत्र उपस्थित किया तथा गणपति की ओर से उपानय उपस्थित कर , उसे स्वीकार कर कृतार्थ करने का शिष्टाचार प्रदर्शित किया ।

सम्राट ने राजपत्र राजसम्मान- सहित ग्रहण कर उपानय के लिए आभार और सन्तुष्टि प्रकट कर कहा - “ कह आयुष्मान्, मैं तेरा और अष्टकुल के प्रतिष्ठित वज्जीसंघ का क्या प्रिय कर सकता हूं ? ”

जयराज ने धीमे किन्तु स्थिर स्वर में कहा - “ क्या देव मुझे स्पष्ट भाषण करने की अनुमति देते हैं ? ”

“ क्यों नहीं आयुष्मान्, तू कथनीय कह। ”

“ तो देव , बज्जीगण का अनुरोध है कि सम्राट् आर्य महामात्य को राजगृह में फिर से सुप्रतिष्ठित करें । ”

“ यह तो मगध राज्य का अपना प्रश्न है भद्र, वज्जी गणराज्य को अनुरोध करने का इसमें क्या अधिकार है ? अपितु राजदण्ड प्राप्त बहिष्कृत महामात्य को राज-नियम के विपरीत वज्जीगणसंघ ने प्रश्रय देकर मागध राज्य- संधि भंग की है, जिसका दायित्व वज्जीगण -संघ पर है। ”

“ इसके विपरीत देव , वज्जीगण - संघ की यह धारणा है कि सम्राट की अभिसंधि से महामात्य कूटनीति का अनुसरण कर तूष्णी युद्ध कर रहे हैं । ”

“ तो इस धारणा के वज्जी गणा-संघ के पास पुष्ट प्रमाण होंगे ? ”

“ देव , वज्जी गण- संघ सम्राट् की मैत्री का मूल्य समझता है । वह बिना प्रमाण कुछ नहीं करता , सम्राट को मैं विश्वास दिलाता हूं । ”

“ आयुष्मान, क्या कहना चाहता है, कह । ”

“ महाराज, वैशाली के अष्टकुल सम्राट् से मैत्री सम्बन्ध स्थिर किया चाहते हैं । ”

“ किन्तु किस प्रकार भद्र ? ”

“ मागध साम्राज्य के प्रति वैशाली के अष्टकुल के जैसे विचार हैं, वह मैं भली भांति जानता हूं। ”

“ मैं भी क्या उनसे अवगत हो सकता हूं , भद्र ! ”

“ महाराज, वज्जीगण सम्राट् की किसी भी इच्छा की अवहेलना नहीं करेंगे । ”

“ तब तो मुझे केवल यही विचार करना है कि मुझे उनसे क्या कहना चाहिए। ”

“ सम्राट् यदि स्पष्ट कहें । ”

“ यह तो व्यर्थ होगा आयुष्मान् ! ”

“ तो क्या मैं ही सम्राट् को वज्जी गण- संघ का संदेश निवेदन करूं ? ”

“ यह अधिक उपयुक्त होगा । ”

“ मैं स्पष्ट कहने के लिए सम्राट् से क्षमा -याचना करता हूं। ”

“ कह भद्र , कथनीय कह! ”

“ देव यह जानते हैं कि वह बात अब सार्वजनिक हो चुकी है। ”

“ आयुष्मान्, तेरा अभिप्राय क्या है ? ”

“ वह स्पष्ट है, देव यदि अष्टकुल की किसी कुलीन कुमारी से विवाह करना चाहते हैं तो यह सुकर है । ”

“ प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण है और इससे मेरी प्रतिष्ठा होगी । ”

“ साथ ही अष्टकुल के वजी गणतन्त्र और मगध -साम्राज्य की मैत्री - समृद्धि भी बढ़ेगी । किन्तु इसके लिए एक वचन देना होगा । ”

“ कैसा वचन ? ”

“ केवल लिच्छवि कुमारी का पुत्र ही भावी मगध- सम्राट् होगा । ”

“ केवल यही ? और कुछ तो नहीं ? ”

“ नहीं देव ! ”

“ आयुष्मान् को कुछ और भी कथनीय है ? ”

“ यत्किंचित ; महाराज , देवी अम्बपाली वज्जीगण का विषय हैं , उन पर सम्पूर्ण गणजनपद का समान अधिकार है । अष्टकुल उन पर किसी एक का एकाधिकार सहन नहीं करेगा। ”

“ यह मैं समझ गया और कह भद्र! ”

“ और तो कुछ कथनीय नहीं है देव ! ”

“ कुछ भी नहीं ? ”

“ नहीं । ”

“ अच्छा, तो मैं अष्टकुल का प्रस्ताव अस्वीकार करता हूं । ”

“ क्या आप अष्टकुल की किसी भी कुमारी से विवाह करना अस्वीकार कर रहे हैं ? ”

“ यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है भद्र , किन्तु मैं इसे अपनी स्वेच्छा और भावना की बलि देकर नहीं स्वीकार कर सकता । रही देवी अम्बपाली की बात ; वज्जीगण के उस धिक्कृत कानून की बात मैं जानता हूं; परन्तु आयुष्मान् , कोई भी मागध स्त्री जाति के अधिकारों को हरण करनेवाले इस कानून के विरोध में खड्ग - हस्त होना आनन्द से स्वीकार करेगा। अच्छा आयुष्मान् , अब विदा! अपने प्रस्ताव के लिए अष्टकुल के वज्जीगण प्रमुखों से मेरी कृतज्ञता अवश्य प्रकट कर देना । ”

“ सम्राट्, मुझे यह भय है कि इस निर्णय का कोई भयानक परिणाम न हो , दो पड़ोसी राज्य -व्यवस्थाओं के बीच की सद्भावना न नष्ट हो जाए । ”

“ आयुष्मान् , महाराज्यों की एक मर्यादा होती है और सम्राट की भी । मागध - सम्राट की एक पृथक् मर्यादा है आयुष्मान्! जिसका तू स्वप्न देख रहा है, मेरी अभिलाषा उससे बड़ी है । ”

“ इससे सम्राट् का यह अभिप्राय तो नहीं है कि सम्राट् अष्टकुलों के स्थापित गणतन्त्र से युद्ध छेड़ चुके । ”

“ अष्टकुलों के गणपति ने क्या इसी से भयभीत होकर तुझे उत्कोच देकर मेरे पास भेजा है ? ”

“ महाराज, लिच्छवि गण -संघ छत्तीस राज्यों के संघ का केन्द्र है। हम गणशासित भलीभांति खड्ग पकड़ना जानते हैं । ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ भद्र , मैं यह बात स्मरण रखूगा । ”

इतना कहकर सम्राट आसन छोड़ उठकर खड़े हुए । जयराज क्रोध से तमतमाते हुए मुख से पीछे लौटे । चिन्ता की रेखाएं उनके सदा के उन्नत ललाट पर अपना प्रभाव डाल रही थीं ।

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